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बाहा रचना का अर्थ

1.बाहा रचना - बाहा रचना के आधार पर भी दात के 3 भाग है - (1) दन्त शिखर - जबडे के ऊपर सफेद रंग की चमक दन्तवेष्ट के कारण  ही होती है। दन्त शिखर का कड़ापन भी दन्तवेष्ट के कारण होता है। यह दन्तवेष्ट जो दन्त शिखर है यह दात के भीतरी भाग  को सुरक्षित रखता है। (2) दन्त ग्रीवा -  यह एक भाग है जो जबडे मे रहता है। यह अन्दर से खोखला होता है। इसके ऊपर दन्त धातु की परत होती है जो ग्रीवा वाले भाग को मसूडे मे जमने मे मदद करती है। दन्त ग्रीवा के खोखले भाग में दन्त मज्जा होती है। इसी दन्त मज्जा से रक्त नलिकाएं, तन्त्रिकाए होती हैं जिससे पीड़ा का अनुभव होता है। (3) दन्त मूल -  यह दात का सबसे नीचे वाला भाग है जो जबड़े की हड्डी वाले भाग मे होता है। दांतो मे जड़ की संख्या अलग- अलग होती है। छेदक तथा भेदक - दांतो मे एक जड़ होती है। अग्र चवर्णक मे दो जडे तथा चवर्णक में 3 जड़े होती है। दांतो के कार्य - 1 भोजन को कुतरकर, चबाकर छोटे-छोटे टुकडों में बदलना।  2 - दात चेहरे को सुन्दरता प्रदान करते है। 
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स्थायी दांत की संख्या

1.स्थायी दांत की संख्या (1) स्थायी दांत वास्तव में मनुष्य के शरीर में अस्थायी दांत बनने की क्रिया जब शिशु मा के गर्भ में होता है तभी प्रारंभ हो जाती है। जन्म के बाद 6-9 वे माह के अन्दर बच्चे के दांत निकलने प्रारंभ होते है। ये अस्थायी दांत 6 वर्ष की उम्र से टूटने प्रारंभ हो जाते है। 12वर्ष की उम्र तक टूटते है तथा नये स्थायी दांत निकलते आते है। करीब 25 वर्ष की उम्र तक सब स्थायी दांत निकल आते है। ये दांत जबड़ों में जमे रहते रहते हैं। ऊपर का जबड़ा अचल होता है, जबकि नीचे का जबड़ा चल होता है। (2) स्थायी दांत 6-7 वर्ष की उम्र से स्थायी दांत निकलने शुरू होते है। 12 वर्ष की उम्र तक 24 स्थायी दांत आते है - ऊपर के जबड़े में 12 नीचे के जबड़े में। पीछे की 4 दांडे 25 वर्ष की उम्र तक आ जाती है। इस प्रकार कुल 32 दांत - 16 के जबड़े में तथा 16 के जबड़े में होते है। स्थायी दांत 4 प्रकार के होते है- (1) छेदक या काटने वाले दांत ये दांत गिनती में 8 होते है- चार ऊपर चार नीचे वाले जबड़े में। ये सामने की ओर बीच में होते है। ये चपटे तथा तेज धार वाले होते है। ये भोजन के छोटे-छोटे टुकड़े करते हैं। (2) भेदक या फाड...

पाचन संस्थान के मुख्य अंग कौन कौन से हैं

1.पाचन संस्थान के मुख्य अंग कौन कौन से हैं।  1.मुख यह वह छिद्र है जो हमारे चेहरे में नाक के नीचे दो होठों से ढका रहता है। होंठ खोलने पर जो रास्ता या छिद्र दिखता है, वह मुंह है।  मुखगुहा-  मुंह से लेकर ग्रसनी से प्रारंभ तक का भाग मुखगुहा कहलाता है। यह मुखगुहा ऊपर की ओर तालू से घिरी रहती हैं। तालू का अगला भाग कड़ा तथा पीछे का भाग मुलायम होता है। दाये-बाये गाल तथा नीचे की ओर जीभ होती है। तालू, गाल, जीभ से घिरा यह भाग मुखगुहा कहलाता है। जीभ -  यह मुलायम मासपेशियों से बनी होती है। ये मासपेशियां दो प्रकार की होती है- (1) बहिस्थ मासपेशियां इसके कारण जीभ की गति तीव्र रहती है। इन मासपेशियों की गति के कारण हम मुखगुहा में भोजन इधर-उधर करते है। चबाने में तथा भोजन निगलने में इसकी गति से मदद मिलती है।  (2) अन्त पेशी जीभ की धीमी गति इन्ही पेशियो के कारण होती है। सामान्य अवस्था में हमारी जीभ चौड़ी होती है, पर जब हम इसे मुखगुहा से बाहर निकालते है, तो ये आगे से नुकीली दिखायी देती है। जीभ के ऊपर अनेक स्वादुकर होते है। ये स्वादुकर उभारदार होते है, जिनके द्वारा हमें भोजन...

पाचन संस्थान

1.पाचन संस्थान [DIGESTIVE SYSTEM] मनुष्य के जीवित रहने के लिए तीन आवश्यक आवश्यकताएं - भोजन, वस्त्र और मकान। भोजन एक ऐसी आवश्यकता है जो मानव शरीर- रूपी मशीन के लिए आवश्यक है। बिना भोजन के यह मशीन बेकार हो जाती है, क्योंकि मनुष्य के शरीर में हर पल क्षण कई ऐसी क्रियाएं होती है जो शरीर की सूक्ष्मतम जीवित इकाई कोशिका को प्रभावित करती हैं। मनुष्य के शरीर में कोशिकाएं टूटती है, शरीर वृद्धि के साथ नयी कोशिकाएं बनती है। इस सबके लिये शरीर को शक्ति तथा ऊर्जा चाहिये होती है। इसी प्रकार शरीर को बीमारियों से बचाने के लिए शरीर को रोगरोधन क्षमता की आवश्यकता होती है। ये तीनों काम, भोजन करता है (1) नयी कोशिकाएं बनाना टूटी-फूटी कोशिकाओं की मरम्मत (2) शरीर को ऊर्जा + शक्ति देना।  (3) शरीर को रोगरोधन शक्ति प्रदान करना। किन्तु केवल भोजन खाने मात्र से ही यह का नही हो जाते। हमारी यह जीवित मशीन चलती रहे, स्वस्थ रहे इसके लिये भोजन का पाचन, अभिशोषण तथा चयापचय आवश्यक पाचन क्रिया -  भोजन को घुलित अवस्था में बदलकर इस योग्य बनाना कि अभिशोषण हो सके।  अभिशोषण -  पाचन क्रिया के बाद भोजन के पोष्टिक तत...

लसीका की संरचना

1.लसीका की संरचना शरीर में रक्त वाहिकाओं के समान 3-4 वाहिकाओं का भी जाल होता है जिन्हें लसिका वाहिकाएं कहते हैं। पचे भोजन में वसीय पदार्थ का अवशोषण इन्ही वाहिकाओं के द्वारा होता है। छोटी-छोटी लसिका वाहिकाएं मिल कर बड़ लसिका वाहिका बनाती है। इन वाहिकाओं में एक इस प्रकार तरल  होता है जिसे लसिका कहते है।  लसिका का संगठन- यह एक रंगहीन पारदर्शी द्रव्य है जिसमें जल, प्रोटीन, कार्बोज, तथा श्वेत रक्त कण होते हैं। (इसमें रक्त के लाल रक्त कण+ठोस पदार्थ नही होते है) श्वेत रक्त कण कोशिकाओं से निकल कर इसमें आ जाते है। श्वेत कण यहां आकर श्वेताणु के नाम से जाने जाते हैं। यह लसिका-लसिका वाहिकाओं के द्वारा दायी लसिका वाहिनी में जाता है। वहां से वक्ष लसिका वाहिनी में वहां से रक्त वाहिकाओं में चले जाते है। पाचन संस्थान से आने वाली लसिका का रंग दूध के समान सफेद होता है तथा वाहिनियां इस लसिका को लेकर आती हैं उन्हें दुग्ध वाहिकाएं या वसा लसिका कहते है। लसिका संस्थान में निम्न लसिका वाहिनियां तथा लसिका ग्रन्थियां है- लसिका वाहिकाएं  जिस प्रकार मे रक्त कोशिकाएं होती है उसी प्रकार लसिका केशिकाये ...

हृदय की धड़कन बढ़ने के कारण

1हृदय की धड़कन बढ़ने के कारण दीर्घ एवं लघु परिसंचरण क्रिया में दोनोें अलिन्द एक साथ सिकुड़ते है जिससे निकल फैलते है और रक्त निलय में पहुंचता है। सिकुड़ने की क्रिया को प्रकुचन कहते है तथा फैलने की क्रिया जीवनपर्यन्त चलती रहती है। यह क्रिया 1 मिनट में 60-62 बार होती हैं। बाये निलय में जहां शुद्ध रक्त होता है, इसका झुकाव बायी ओर थोड़ा अधिक होने के कारण जब इसमें संकुचन होने से यह कोष्ठ छाती की दीवार से टकराता है जिसके कारण हृदय की धड़कन कहते है। हृदय की इस गति को नियन्त्रित करने के लिये एक प्राकृतिक व्यवस्था होती हैं। दाये अलिन्द की दीवार में एक बारीक रचना साइनो आरीकुलर नाड होती है जो हृदय गति को नियन्त्रित करती हैं। इसके काम न करने पर हृदय गति गडबडा जाती है जिसके परिणामस्वरुप मृत्यु हो जाती है। किन्तु अब विज्ञान के कृत्रिम गति नियन्त्रक बना लिया है। समय से की गड़बडी का पता चल जाने पर यह कृत्रिम पेसमेकर लगा कर हृदय की गति नियन्त्रित कर ली जाती हैं। हृदय की साधारण गति प्रति मिनट 60 बार होती है किन्तु हृदय की यह गति हमारे भोजन, श्रम, आयु, व्यवसाय पर निर्भर करती है, क्योंकि हृदय प्रति मिनट जि...

रक्त परिक्रमा व फुफ्फुसीय परिसंचरण क्या है

1.रक्त परिक्रमा व फुफ्फुसीय परिसंचरण क्या है 1.रक्त परिक्रमा अर्थात हृदय से शुद्ध रक्त शरीर के विभिन्न भागों में पहुंचाना।  इस प्रक्रिया के अन्तर्गत शुद्ध रक्त पहले बाये अलिंद में आता है। वहा से बाये निलय में जाता हैं। बाये निलय से महाधमनी निकलती है जो ऊपर की ओर थोड़ा उठाकर मेहराब बनाती हुई नीचे मुड़ जाती है। मेहराब वाला भाग तथा उसके बाद नीचे आने वाले भाग को अवरोही महाधमनी कहते है। अधिरोही महाधमनी- यहा से हृदय को रक्त आपूर्ति करने के लिए दायी-बायी हार्दिक धमनी निकलती है। मेहराव वाला भाग- यहां से तीन महाधमनिया निकलती है। एक ऊपर की ओर जाकर दो भागों में बट कर दाये-बाये चेहरे तथा मस्तिष्क में रक्त पहुंचाती है अनामी धमनी। इसी प्रकार एक शाखा हसली के नीचे से निकल कर दायी बाजू में एक बायी बाजू में चली जाती हैं अवरोही महाधमनी- यह मध्यछन्द पेशी से होकर नीचे आमाशय में (उदर ) मे जाती है। यहां से और शाखाये निकल कर यकृत, प्लीहा, अग्न्याशय में जाती है फिर यह छोटी आत में जाती हैं। जहां से दो शाखाये होकर दाये-बाये गुर्दे में जाती हैं। वृक्कीय धमनी कहलाती है। इसके बाद नितम्ब अस्थि पर पहु...